संसदीय डेलीगेशन पर फिलहाल कांग्रेस ने लगाया सीजफायर, लेकिन क्या ये तूफान से पहले की खामोशी है?
पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बेनकाब करने के लिए गठित संसदीय प्रतिनिधिमंडल को लेकर कांग्रेस और सरकार के बीच जो राजनीतिक तूफान उठा है, वह अभी थमा नहीं है। सरकार ने कांग्रेस द्वारा सुझाए गए चार नेताओं (आनंद शर्मा, गौरव गोगोई, अमरिंदर सिंह राजा, नासिर हुसैन) की जगह शशि थरूर, मनीष तिवारी, सलमान खुर्शीद और अमर सिंह को शामिल कर लिया, जिसे कांग्रेस ने "सरकारी बेईमानी" करार दिया। हालांकि, अब पार्टी ने विवाद को टालने का फैसला किया है, लेकिन सूत्रों का कहना है कि यह महज "तूफान से पहले की शांति" है। असल मामला तब बिगड़ा जब थरूर और तिवारी ने सीधे सरकार से संपर्क कर हामी भर दी, बिना पार्टी नेतृत्व की मंजूरी लिए।
अनुशासन बनाम राष्ट्रीय हित की लड़ाई में फंसी कांग्रेस
बता दें कि कांग्रेस के लिए यह स्थिति किसी राजनीतिक धर्मसंकट से कम नहीं है। एक तरफ पार्टी सरकार पर "संवैधानिक मर्यादाओं" का उल्लंघन करने का आरोप लगा रही है, तो दूसरी ओर उसे अपने ही नेताओं (थरूर-तिवारी) के "विद्रोही रवैये" से जूझना पड़ रहा है।
दिलचस्प बात यह है कि सलमान खुर्शीद और अमर सिंह ने पार्टी लाइन का पालन करते हुए स्पष्ट किया कि वे कांग्रेस के फैसले का सम्मान करेंगे। इससे साफ है कि पार्टी के भीतर "G-24 गुट" (विद्रोही नेताओं) और वफादारों के बीच की खाई और गहरी हुई है।
सरकार की चाल या कांग्रेस का अंदरूनी संकट?
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पवन खेड़ा का आरोप है कि "सरकार उनकी पार्टी में विवाद पैदा करना चाहती है।" उनका इशारा उस रणनीति की ओर है जिसमें सरकार ने जानबूझकर उन नेताओं को प्रतिनिधिमंडल में शामिल किया, जो कांग्रेस नेतृत्व से असहमत रहे हैं। हालांकि, राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह विवाद कांग्रेस के भीतर के संघर्ष को उजागर करता है। थरूर और तिवारी जैसे नेताओं का सीधे सरकार से संपर्क करना दर्शाता है कि पार्टी अनुशासन ढीला पड़ रहा है।
प्रतिनिधिमंडल के लौटने तक मामला ठंडा बस्ते में
फिलहाल कांग्रेस ने इस मुद्दे पर "सीजफायर" का रुख अपना लिया है। पार्टी का कहना है कि चूंकि यह मामला "देशहित" से जुड़ा है, इसलिए वह अभी खुला विरोध नहीं करेगी। लेकिन जैसे ही प्रतिनिधिमंडल लौटेगा पार्टी थरूर और तिवारी की "अनुशासनहीनता" पर बड़ी कार्रवाई कर सकती है। कुछ नेताओं का यह भी मानना है कि यह विवाद आगामी चुनावों से पहले कांग्रेस में बड़े बदलाव का संकेत हो सकता है।
क्या है असली विवाद की जड़?
इस पूरे प्रकरण ने दो बातें साफ कर दी हैं:
सरकार की रणनीति: केंद्र सरकार ने कांग्रेस की आंतरिक कमजोरियों का फायदा उठाकर उसे घेरने की कोशिश की है।
कांग्रेस का संकट: पार्टी नेतृत्व अपने ही सांसदों पर नियंत्रण खो रहा है, जो लंबे समय में उसकी एकजुटता के लिए खतरनाक हो सकता है।
वहीं अभी तो यह विवाद सिर्फ एक प्रतिनिधिमंडल को लेकर है, लेकिन अगर कांग्रेस ने समय रहते अपने भीतर की फूट को नहीं सुलझाया, तो आने वाले दिनों में ऐसे और विवाद सामने आ सकते हैं। बता दें कि कांग्रेस का यह ठंडा बस्ता" अभी के लिए है, गरमागरम बहस तो अभी बाकी है!
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