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बांके बिहारी मंदिर पर ट्रस्ट का पहरा! मंदिरों में सरकार के दखल पर फिर उठा सवाल, क्या आस्था पर हो रहा है संविधान से खिलवाड़?

बांके बिहारी मंदिर ट्रस्ट बना, वक्फ-मस्जिद से तुलना शुरू। क्या सरकार मंदिरों से हाथ हटाएगी? जानिए पूरी बहस और कानूनी स्थिति।
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वृंदावन के प्रसिद्ध बांके बिहारी मंदिर के संचालन व प्रबंधन के लिए योगी सरकार ने हाल ही में बड़ा कदम उठाया है! दरअसल, उत्तर प्रदेश सरकार ने "श्री बांके बिहारी जी मंदिर न्यास अध्यादेश, 2025" लागू कर 18 सदस्यीय ट्रस्ट बना दिया है, जिसमें 11 सरकारी नामांकित और 7 पदेन सदस्य (जैसे DM, SSP) शामिल हैं। सरकार के इस फैसले से कहीं न कहीं मंदिर के प्रबंधन में सरकारी हस्तक्षेप को बढ़ावा मिलता है। साथ ही यह कदम उस बड़े विवाद को हवा दे रहा है जो दशकों से चला आ रहा है कि क्या सरकार को हिंदू मंदिरों पर नियंत्रण रखने का अधिकार है? जबकि मस्जिदें वक्फ बोर्ड और गुरुद्वारे SGPC के अधीन स्वायत्त हैं, देश के 4 लाख से अधिक हिंदू मंदिर सीधे सरकारी नियंत्रण में क्यों? यह सवाल संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता) और 26 (धार्मिक स्वतंत्रता) को चुनौती देता नजर आ रहा है।

मंदिरों की संपत्ति के टैक्स से हज की सब्सिडी क्यों?

तिरुपति मंदिर जैसे प्रतिष्ठित तीर्थस्थल जोकि सरकार के कब्जे में हैं, की आय पर नजर डालें तो चौंकाने वाले तथ्य सामने आते हैं। इस मंदिर की सालाना आय 3,000-4,000 करोड़ रुपये है, जिसमें से मात्र 30% ही मंदिर के रखरखाव पर खर्च होता है। वहीं कर्नाटक के मंदिरों का हाल और भी बुरा है।

बता दें कि 1997-2002 के बीच 391 करोड़ की आय में से 46% (180 करोड़) मदरसों और हज सब्सिडी में चला गया! तमिलनाडु में HR&CE विभाग के तहत 35,000 मंदिरों की 50,000 एकड़ जमीन पर अवैध कब्जा हो चुका है। ये आंकड़े बताते हैं कि कैसे मंदिरों की संपत्ति का उपयोग गैर-धार्मिक कार्यों में किया जा रहा है, जबकि चर्च और मस्जिदों की आय पर सरकारी हस्तक्षेप नहीं होता।

कैसे बन गए मंदिर सरकार के लिए 'कैश काउ'?

मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण की कहानी 1810 से शुरू होती है, जब अंग्रेजों ने मद्रास प्रेसिडेंसी में पहला टेम्पल टैक्स लगाया था। 1863 के धार्मिक बंदोबस्ती अधिनियम और 1951 के HRA Act ने इस नियंत्रण को संस्थागत बना दिया। आज स्थिति यह है कि तमिलनाडु के 35,000, आंध्र प्रदेश के 12,000 और कर्नाटक के 34,000 मंदिर सरकारी विभागों के अधीन हैं। शिरडी साईं मंदिर (1922 से), शबरीमला (1950 से) और तिरुपति (1933 से) जैसे प्रमुख तीर्थस्थलों के करोड़ों रुपये सरकारी कोष में जमा होते हैं, जबकि इनके प्रबंधन में भ्रष्टाचार के मामले लगातार सामने आते रहते हैं।

हिंदू संगठनों का आक्रोश: क्यों चर्च-मस्जिदों पर नहीं लगता टैक्स?

विश्व हिंदू परिषद (VHP) और हिंदू जनजागृति समिति जैसे संगठन #FreeHinduTemples अभियान चला रहे हैं। उनका तर्क है कि जहां कर्नाटक सरकार ने 2024 में 1 करोड़ से अधिक आय वाले मंदिरों पर 10% टैक्स लगाने का प्रस्ताव रखा, वहीं चर्च और मस्जिदों की आय को टैक्स-फ्री रखा गया।

दिलचस्प बात यह है कि देश के 9 लाख मंदिरों से प्राप्त धन का बड़ा हिस्सा कॉमन गुड फंड के नाम पर सरकारी योजनाओं में खर्च किया जाता है, जबकि वक्फ बोर्ड की 5 लाख एकड़ जमीन और चर्चों की अथाह संपत्ति पर कोई सरकारी दखल नहीं। यह असमानता हिंदू समुदाय में गहरा असंतोष पैदा कर रही है।

क्या मिलेगी मंदिरों को स्वायत्तता?

शिरूर मठ केस (1954) और चिदंबरम मंदिर केस (2014) में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया था कि धार्मिक संस्थाओं को अपना प्रबंधन करने का संवैधानिक अधिकार है। फिर भी, राज्य सरकारें लगातार नए ट्रस्ट बनाकर मंदिरों पर कब्जा जमा रही हैं। बांके बिहारी मंदिर मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने यूपी सरकार से जवाब मांगा है। विशेषज्ञों का मानना है कि अगर मंदिरों को वास्तविक स्वायत्तता मिलती है, तो उनकी आय से 35 करोड़ लोगों को रोजगार मिल सकता है और हिंदू धर्म के पुनरुत्थान को बल मिल सकता है। पर सवाल यह है कि क्या सरकारें अपने "धर्मनिरपेक्ष" एजेंडे के तहत ऐसा होने देंगी?

क्या बदलेगा हिंदू मंदिरों का भविष्य?

बांके बिहारी मंदिर का ट्रस्टीकरण उस बड़ी लड़ाई का हिस्सा है जो हिंदू समाज अपने धार्मिक अधिकारों के लिए लड़ रहा है। जब तक मंदिरों की संपत्ति पर सरकारी कब्जा रहेगा, तब तक तिरुपति के प्रसाद में मिलावट और श्रीपद्मनाभस्वामी मंदिर के गहनों की चोरी जैसे मामले होते रहेंगे। हिंदू संगठनों की मांग स्पष्ट है कि मंदिरों को मुक्त करो, उन्हें भक्तों के हवाले करो। अब यह देखना होगा कि क्या सुप्रीम कोर्ट और केंद्र सरकार इस मुद्दे पर कोई ठोस कदम उठाती हैं, या फिर मंदिरों का सरकारीकरण जारी रहेगा?

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