Politics News: नीतीश कुमार के खिलाफ प्रशांत किशोर के कितने मददगार साबित होंगे आरसीपी सिंह?
Politics News: बिहार में एक साथ दो-दो पुराने दुश्मनों की नई नई दोस्ती पूरे देश का ध्यान खींच रही है. फिलहाल तो ये दोस्ती चुनावी ही लगती है, क्योंकि बिहार विधानसभा के चुनाव में अब छह महीने से भी कम वक्त बचा है. जिन दोस्तों की फिलहाल खूब चर्चा है, पूरा मामला नीतीश कुमार और प्रशांत किशोर के इर्द गिर्द घूमता नजर आ रहा है.
जैसे नीतीश कुमार और चिराग पासवान काफी दिनों तक एक दूसरे के जानी दुश्मन बने रहे, करीब करीब वैसा ही रिश्ता प्रशांत किशोर और आरसीपी सिंह के बीच देखा जा चुका है. लेकिन, अब दुश्मनी की बातें काफी पीछे छूट चुकी हैं और चुनाव से पहले दोस्ती दुश्मनी के नये नये समीकरण बनने लगे हैं. जैसे केंद्रीय मंत्री चिराग पासवान का मुख्यमंत्री आवास पहुंचकर नीतीश कुमार से मिलना असामान्य लग रहा था, वैसे ही प्रशांत किशोर और आरसीपी सिंह का साथ आना भी असंवभव तो हीं, लेकिन सामान्य भी नहीं लग रहा है - लेकिन चुनावी दबाव और मजबूरियां भी तो कुछ होती ही हैं.
जैसे 2020 के चुनाव में चिराग पासवान हाथ धोकर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के पीछे पड़े रहे, ठीक वैसे ही 2025 के बिहार विधानसभा चुनाव के बहुत पहले से ही प्रशांति किशोर बिहार के मुख्यमंत्री के खिलाफ जोरदार मुहिम चला रहे हैं - और इस मुहिम में नीतीश कुमार के पुराने साथी आरसीपी सिंह ने प्रशांत किशोर के साथ आकर पूरे मामले को दिलचस्प बना दिया है.
ये दोस्ती कब तक चलेगी?
चुनावी दोस्ती बिकाऊ तो होती है, लेकिन टिकाऊ कम ही होती है. और वो भी नीतीश कुमार के मामले में तो ये बिल्कुल अस्थाई चीज है. ये नीतीश कुमार ही हैं जिनके खिलाफ प्रशांत किशोर से आरसीपी सिंह ने हाथ मिलाया है - और प्रशांत किशोर का साथ मिल जाने से बहुत कुछ करने का न सही, चर्चा में बने रहने का मौका तो मिलेगा ही. नीतीश कुमार से अलग होने के बाद मुख्यधारा की राजनीति में आरसीपी सिंह तो पूरी तरह फेल रहे हैं, लेकिन प्रशांत किशोर का स्ट्राइक रेट अच्छा देखा गया है. बिहार की चार सीटों पर हुए उपचुनाव में प्रशांत किशोर के विधायक तो एक भी नहीं मिल सका, लेकिन 10 फीसदी वोट जरूर मिले. और, वोटों की ये हिस्सेदारी कोई कम तो नहीं ही है.
प्रशांत किशोर की ही तरह आरसीपी सिंह ने भी एक राजनीतिक पार्टी बनाई थी - आसा, यानी 'आप सबकी आवाज'. लेकिन अब उसका जन सुराज पार्टी में विलय हो चुका है. जेडीयू से नाता टूटने के बाद आरसीपी सिंह बीजेपी में जाना चाहते थे, लेकिन वहां बिलकुल भी भाव नहीं मिला. बीजेपी ने आरसीपी सिंह का इस्तेमाल तो किया, लेकिन विश्वास नहीं किया. यूज एंड थ्रो, मामला बिल्कुल ऐसा ही रहा.
जब खुद ही शपथ ले बैठे
जब प्रशांत किशोर को नीतीश कुमार ने जेडीयू का भविष्य बताते हुए उपाध्यक्ष बनाया था, तो आरसीपी सिंह महासचिव हुआ करते थे, और बाद में पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी बन गये थे. 2020 के बिहार चुनाव के बाद नीतीश कुमार कई मुद्दों पर बीजेपी से टकराव नहीं मोल लेना चाहते थे, इसलिए आरसीपी सिंह को जेडीयू की कमान सौंप दी. फैसले तो तब भी नीतीश कुमार ही लिया करते थे, लेकिन बीजेपी के खिलाफ आक्रामक रुख आरसीपी सिंह का ही देखने को मिलता था. आरसीपी सिंह की मुख्य भूमिका तब निगोशियेटर की हुआ करती थी, और उसी का फायदा उठाते हुए एक दिन खेल कर दिया.
नीतीश कुमार ने आरसीपी सिंह को बीजेपी के साथ केंद्रीय मंत्रियों के कोटे पर मोलभाव करने के लिए भेजा था, और वो खुद ही मंत्री पद की शपथ ले बैठे. लेकिन, मंत्री भी तभी तक रह पाये जब तक राज्यसभा का उनका कार्यकाल रहा. बाद में नीतीश कुमार ने हाथ खींच लिये, और बीजेपी ने हाथ बढ़ाये ही नहीं. तब से नीतीश कुमार को आरसीपी सिंह बहुत बुरा भला कहते रहे, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ.
आरपीसिंह का रहा बड़ा हाथ
याद करें तो प्रशांत किशोर को जेडीयू से बाहर का रास्ता दिखाने में आरसीपी सिंह का बहुत बड़ा हाथ रहा, और इस मिशन में वो मौजूदा कार्यकारी अध्यक्ष ललन सिंह से हाथ मिला रखे थे. फिलहाल तो ललन सिंह भी केंद्र की बीजेपी सरकार में मंत्री बने हुए हैं. प्रशांत किशोर और आरसीपी सिंह की नई दोस्ती में फेविकोल का काम नीतीश कुमार ही कर रहे हैं, अगर कोई समीकरण बदला तो ये दोस्ती टूटते भी देर नहीं लगेगी.
नीतीश कुमार के लिए लिए कितना नुकसानदेह?
चाहे प्रशांत किशोर हों, या फिर आरसीपी सिंह दोनो ही बड़े बेआबरू होकर जेडीयू से निकले थे. नीतीश कुमार ने इस मामले में कभी किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं किया. क्योंकि प्रशांत किशोर और आरसीपी सिंह के साथ भी बिल्कुल वैसा ही व्यवहार किया था, जैसा किसी जमाने में जॉर्ज फर्नांडिस और शरद यादव जैसे कद्दावर नेताओं के साथ किया था. एक एक करके नीतीश कुमार ने सभी को ठिकाने लगा दिया, लेकिन खुद मैदान में, मोर्चे पर और मुख्यमंत्री की कुर्सी पर अब तक जमे हुए हैं.
आरसीपी सिंह की जेडीयू को मजबूती देने में बहुत बड़ी भूमिका रही है, जैसे मुकुल रॉय की भूमिका ममता बनर्जी के तृणमूल कांग्रेस में कभी हुआ करती थी. हो सकता है, मुकुल रॉय से निराश होने के कारण ही बीजेपी ने आरसीपी सिंह से काम हो जाने के बाद दूरी बना ली हो.
आरसीपी सिंह भी उसी इलाके और बिरादरी से आते हैं, जिससे नीतीश कुमार आते हैं, और लंबे अर्से तक वो नीतीश कुमार के सहयोगी रहे हैं. आरसीपी सिंह पहले नौकरशाह हुआ करते थे. यूपी कैडर के आईएएस. नीतीश कुमार बिहार पहुंचे तो केंद्र से उनको भी बुला लिये - और संगठन के काम में लगा दिया. आरसीपी सिंह ने नीतीश कुमार से मिले हर टास्क को पूरा किया, सिवा बीजेपी के साथ आखिर डील अपने नेता के मनमाफिक करने के.शायद वो बीजेपी नेतृत्व के ब्रेनवाश के शिकार है. और, कुछ दिन तक मंत्री बनने के लिए जिंदगी भर की राजनीति दांव पर लगा दी.
बिहार बदलाव यात्रा का है ये हाल
2015 के बिहार विधानसभा चुनाव से पहले नीतीश कुमार जब लालू यादव के साथ हो गये थे, डैमेज करने के लिए बीजेपी ने जीतन राम मांझी का खूब इस्तेमाल किया. आरसीपी सिंह के कंधे पर बंदूक रखकर अब प्रशांत किशोर भी वैसे ही निशाना साधने की कोशिश कर रहे हैं. आरसीपी सिंह को प्रशांत किशोर ने अपनी बिहार बदलाव यात्रा से ठीक पहले साथ लिया है, और निशाने पर नीतीश कुमार का ही इलाका है.
आरसीपी सिंह का हाल भी फिलहाल 2015 के जीतनराम मांझी जैसा ही हो गया है. जीतनराम मांझी तो माफी मांगकर नीतीश कुमार के पास लौट भी आये, लेकिन आरसीपी सिंह को कभी ये मौका नहीं मिला. लिहाजा, आज की तारीख में घोषित रूप से नीतीश कुमार के बड़े दुश्मनों में से एक प्रशांत किशोर के पास पहुंच गये हैं.
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