नॉर्थ ईस्ट में कैसे पीएम मोदी ने बिछाई सियासी बिसात? 700 से ज्यादा बार पहुंचे मंत्री, आखिर क्या है इसकी वजह?
North East Rising Summit: एक दशक पहले तक जिस पूर्वोत्तर को दिल्ली की सरकारें "सीमांत राज्य" कहकर नजरअंदाज करती थीं, आज वही इलाका मोदी सरकार के लिए "गेटवे टू साउथईस्ट एशिया" बन चुका है। ये कोई संयोग नहीं, बल्कि एक सोची-समझी रणनीति का नतीजा है जिसमें पीएम मोदी ने अपने 700 से ज्यादा केंद्रीय मंत्रियों को पूर्वोत्तर के कोने-कोने में भेजकर विकास की नई इबारत लिखी। लेकिन सवाल यह है कि क्या ये सिर्फ राजनीतिक दिखावा है या फिर जमीन पर वाकई बदलाव आया है? और क्यों मोदी सरकार ने इस इलाके को अपनी नीतियों का केंद्र बिंदु बनाया?
PM मोदी का पूर्वोत्तर के लिए EAST फॉर्मूला क्या?
दरअसल पीएम मोदी ने पूर्वोत्तर के विकास के लिए जिस EAST (Empower, Act, Strengthen, Transform) फॉर्मूले को गढ़ा, वह सिर्फ नारा नहीं बल्कि एक क्रांतिकारी बदलाव का आधार बना। इसके तहत पहली बार केंद्र सरकार ने न सिर्फ पूर्वोत्तर के इंफ्रास्ट्रक्चर पर 44,000 करोड़ रुपये से ज्यादा की फंडिंग की, बल्कि इस इलाके को देश की मुख्यधारा से जोड़ने का ऐतिहासिक काम किया। बोगीबील पुल से लेकर मणिपुर इंटरनेशनल ट्रेड सेंटर तक, हर प्रोजेक्ट ने इस इलाके को नई पहचान दी है।
कैसे 700 मंत्रियों के दौरों ने बदली पूर्वोत्तर की तस्वीर?
जब केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी अरुणाचल के दूरदराज के गांवों में सड़कों का निरीक्षण करते हैं, जब स्मृति ईरानी मेघालय की आदिवासी महिलाओं से रूबरू होती हैं, तो ये सिर्फ फोटो ऑप्स नहीं होते। यह एक सुनियोजित रणनीति का हिस्सा है जिसने पूर्वोत्तर को कभी न देखी गई प्राथमिकता दी। इन दौरों ने न सिर्फ स्थानीय समस्याओं को सीधे केंद्र तक पहुंचाया, बल्कि इस इलाके में केंद्र सरकार की मौजूदगी को भी रेखांकित किया। पर क्या ये दौरे सिर्फ विजिटिंग कार्ड छोड़कर लौट जाते हैं या फिर वाकई में बदलाव लाते हैं?
कितना बदला पूर्वोत्तर वास्तव में?
आज पूर्वोत्तर में पर्यटकों की संख्या 300% बढ़ चुकी है, AIIMS जैसे संस्थान खुल गए हैं और स्टार्टअप कल्चर फलफूल रहा है। लेकिन अभी भी मणिपुर जैसे राज्यों में हिंसा, नागालैंड में शांति प्रक्रिया का अधूरा एजेंडा और बुनियादी सुविधाओं की कमी जैसी चुनौतियां बरकरार हैं।
क्या पूर्वोत्तर दिल्ली से जुड़ पाएगा दिल से?
मोदी सरकार के दावों और जमीनी हकीकत के बीच का फासला अभी भी बरकरार है। जहां एक ओर पूर्वोत्तर में इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट ने नई रफ्तार पकड़ी है, वहीं स्थानीय लोगों को अभी भी रोजगार और बेहतर जीवन स्तर के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। 700 दौरों ने जरूर इस इलाके को केंद्र की राजनीति में प्रमुखता से स्थापित किया है, लेकिन असली सवाल यह है कि क्या यह बदलाव स्थायी होगा? क्या पूर्वोत्तर वाकई में भारत के विकास की कहानी का अहम हिस्सा बन पाएगा या फिर यह सब सिर्फ एक सियासी ड्रामा है जिसका अंत चुनावों के बाद हो जाएगा? यह वह सवाल है जिसका जवाब आने वाला वक्त ही देगा।
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