कसाई से कम नहीं तुर्की, एक झटके में 15 लाख लोगों का उतारा था मौत के घाट!
तुर्की इन दिनों सुर्खियों में है, लेकिन गलत वजहों से। भारत में लोग तुर्की से नाराज़ हैं क्योंकि भूकंप के वक्त भारत ने दिल खोलकर उसकी मदद की थी, और बदले में तुर्की ने पाकिस्तान का साथ दिया। व्यापारी तुर्की से आयात-निर्यात बंद करने की बात कर रहे हैं, तो टूरिस्ट होटल बुकिंग और फ्लाइट टिकट कैंसिल कर रहे हैं। लेकिन तुर्की का एक पुराना विवाद ऐसा है, जो सदी बीत जाने के बाद भी उसे बदनाम करता रहता है। ये है आर्मेनियाई नरसंहार का दाग, जिसे तुर्की आज भी कबूल नहीं करता, जबकि दुनिया के 30 से ज़्यादा देश इसे सच मानते हैं।
15 लाख लोगों की दर्दनाक कहानी
बात 1915 की है, जब ऑटोमन साम्राज्य (उस्मानी साम्राज्य) ने करीब 15 लाख आर्मेनियाई लोगों को मौत के घाट उतार दिया। कोई फांसी पर लटका, कोई रेगिस्तान में भूख-प्यास से मरा। दो साल तक ये खौफनाक सिलसिला चलता रहा। दुनिया इसे 20वीं सदी का दूसरा सबसे बड़ा नरसंहार कहती है, लेकिन तुर्की इसे नरसंहार मानने को तैयार नहीं। वो कहता है, हां कुछ मौतें हुईं, लेकिन 15 लाख का आंकड़ा गलत है और ये नरसंहार नहीं था।
यहूदियों के बाद दूसरा सबसे बड़ा नरसंहार
24 अप्रैल 1915 को इस खूनी खेल की शुरुआत हुई। ऑटोमन साम्राज्य ने आर्मेनियाई ईसाई समुदाय को निशाना बनाया। बच्चे, बूढ़े, औरतें, कोई नहीं बचा। लूटपाट, बलात्कार, और गांव के गांव जलाए गए। बच्चों को रेगिस्तान में भूखा-प्यासा तड़पने के लिए छोड़ दिया गया। उस वक्त आर्मेनियाई लोग अल्पसंख्यक थे, पढ़े-लिखे और पैसे वाले। प्रथम विश्व युद्ध के बीच ये नरसंहार चला। इतिहास में सबसे बड़ा नरसंहार हिटलर का यहूदियों वाला (60 लाख मौतें) माना जाता है, तो दूसरा यही आर्मेनियाई नरसंहार।
ऑटोमन साम्राज्य का खौफनाक चेहरा
19वीं सदी में ऑटोमन साम्राज्य अपने चरम पर था। सुल्तान का हुक्म ही कानून था। लेकिन लोग जागरूक भी हो रहे थे। आर्मेनियाई ईसाई अल्पसंख्यक थे, और मुस्लिम बहुल देश में उनकी तरक्की से जलन होने लगी। 20वीं सदी की शुरुआत में राष्ट्रवाद का जुनून चढ़ा, और गैर-मुस्लिमों पर शक गहराने लगा। आर्मेनियाई लोग अपनी आवाज़ उठाने लगे, मीटिंग करने लगे। ऑटोमन शासकों को ये बगावत लगी। 24 अप्रैल 1915 को अंकारा में हज़ारों आर्मेनियाई बुद्धिजीवियों को गिरफ्तार कर लिया गया। यहीं से नरसंहार का सिलसिला शुरू हुआ।
दो चरणों में हुआ कत्लेआम
ऑटोमन शासकों को शक था कि आर्मेनियाई लोग रूस के साथ मिलकर उनके खिलाफ साजिश रच रहे हैं। बस इसी शक में कत्लेआम शुरू हुआ। पहले चरण में पुरुषों को चुन-चुनकर मारा गया। फिर औरतों और बच्चों की बारी आई। उन्हें सीरिया और अरब के रेगिस्तान में ‘डेथ मार्च’ के लिए भेजा गया। भूख-प्यास से तड़पकर हज़ारों लोग मर गए। गांव जला दिए गए, औरतों के साथ बलात्कार हुए। शासक ये सब देखते रहे, लेकिन मदद का नामोनिशान नहीं।
दुनिया ने माना नरसंहार, तुर्की नकारता रहा
दुनिया के बड़े देश जैसे फ्रांस, जर्मनी, कनाडा और 30 से ज़्यादा मुल्क इसे नरसंहार मानते हैं। 2021 में अमेरिका ने भी इसे आर्मेनियाई नरसंहार का दर्जा दिया। तुर्की ने खूब विरोध किया, लेकिन जो बाइडेन नहीं झुके। भारत ने अभी तक इस पर कोई स्टैंड नहीं लिया, लेकिन जिस तरह लोग तुर्की के खिलाफ गुस्सा दिखा रहे हैं, हो सकता है भारत भी जल्द इन देशों के साथ खड़ा हो। तुर्की 110 साल बाद भी इसे नरसंहार नहीं मानता। उसका कहना है कि आर्मेनियाई लोग ऑटोमन साम्राज्य के खिलाफ रूस के साथ थे, और युद्ध में उनकी मौत हुई, न कि नरसंहार से।
आज़ाद अर्मेनिया की कहानी
आज अर्मेनिया एक आज़ाद मुल्क है। पहले ये सोवियत संघ का हिस्सा था। 1990 में इसे आज़ादी मिली, और 1991 में अंतरराष्ट्रीय मान्यता। इसकी राजधानी एरेवन है। अब ये शांतिप्रिय देश है, जो 10 प्रांतों में बंटा है। हर साल 24 अप्रैल को दुनिया भर के आर्मेनियाई लोग इस नरसंहार को याद करते हैं।
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