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तुर्की क्यों निभा रहा पाकिस्तान की दोस्ती? सिर्फ मजहब नहीं, इसके पीछे हैं कई और बड़े कारण

जब भी भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव बढ़ता है, कुछ देश ऐसे होते हैं जो खुलकर किसी एक पक्ष में खड़े नजर आते हैं। चीन की भूमिका तो अब तक साफ हो चुकी है, लेकिन तुर्की का भारत-विरोधी रुख...
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जब भी भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव बढ़ता है, कुछ देश ऐसे होते हैं जो खुलकर किसी एक पक्ष में खड़े नजर आते हैं। चीन की भूमिका तो अब तक साफ हो चुकी है, लेकिन तुर्की का भारत-विरोधी रुख लगातार हैरान करता रहा है। चाहे कश्मीर मुद्दा हो या आतंकवाद से जुड़े हालिया घटनाक्रम—तुर्की अक्सर पाकिस्तान की पीठ थपथपाता दिखता है। हाल ही में पहलगाम आतंकी हमले के बाद भी तुर्की ने पाकिस्तान का समर्थन किया और उसके ड्रोन टेक्नोलॉजी का उपयोग भी सामने आया। सवाल ये है—तुर्की आखिर भारत से क्यों पंगा ले रहा है? क्या सिर्फ इस्लामिक एकजुटता इसके पीछे है, या कोई और वजह है?

तुर्की-पाकिस्तान की नजदीकी: मध्य-पूर्व की राजनीति की गहरी चाल

जेएनयू के इंटरनेशनल रिलेशंस विशेषज्ञ प्रोफेसर संदीप कुमार मानते हैं कि तुर्की की यह रणनीति इस्लामिक दुनिया में खुद को सबसे प्रभावशाली नेता के रूप में स्थापित करने की एक कोशिश है। वे बताते हैं कि भारत के मौजूदा नेतृत्व ने सऊदी अरब, यूएई और ईरान जैसे देशों के साथ मजबूत रिश्ते बनाए हैं। ये वही देश हैं जो पहले पाकिस्तान के करीबी माने जाते थे। अब जब पाकिस्तान को इन देशों से अपेक्षित समर्थन नहीं मिल रहा, तो उसने तुर्की और मलेशिया जैसे देशों से नए समीकरण बना लिए हैं।

तुर्की की 'इस्लामिक वर्ल्ड लीडरशिप' की महत्वाकांक्षा

तुर्की, खासतौर पर राष्ट्रपति रेसेप तैय्यप एर्दोआन के नेतृत्व में, खुद को 'उम्मा' यानी वैश्विक इस्लामिक समुदाय का नेता मानता है। मिडल ईस्ट की चार बड़ी ताकतें—सऊदी अरब, ईरान, इजरायल और तुर्की—इस्लामिक राजनीति में अपनी-अपनी भूमिका निभा रही हैं। इनमें ईरान शिया नेतृत्व का प्रतिनिधित्व करता है। सऊदी अरब मक्का-मदीना के चलते सुन्नी दुनिया का केंद्र है। और तुर्की अपने ऑटोमन साम्राज्य के इतिहास से सुन्नी वर्चस्व का दावा करता है। इस्लामिक दुनिया में यह नेतृत्व की जंग ही तुर्की को पाकिस्तान के करीब ले आई है।

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पाकिस्तान है दुनिया की एकमात्र इस्लामिक परमाणु शक्ति

पाकिस्तान दुनिया का इकलौता मुस्लिम देश है जिसके पास परमाणु हथियार हैं। तुर्की इस वजह से भी उसे रणनीतिक रूप से अहम मानता है। हाल के वर्षों में तुर्की, पाकिस्तान और मलेशिया ने मिलकर एक इस्लामिक गठजोड़ खड़ा करने की कोशिश भी की थी, जिसका उद्देश्य सऊदी अरब को चुनौती देना था। हालांकि ये पहल ज्यादा आगे नहीं बढ़ सकी, पर इससे तुर्की के इरादे जरूर स्पष्ट हो गए।

भारत की नाराजगी का तुर्की को भुगतना पड़ सकता है खामियाजा

भारत एक उभरती आर्थिक महाशक्ति है और उसका बाजार तुर्की के लिए बेहद अहम है। बावजूद इसके, तुर्की बार-बार भारत की संप्रभुता के खिलाफ बोलकर अपने लिए मुश्किलें खड़ी कर रहा है। प्रोफेसर संदीप कहते हैं, "अगर भारत ने तुर्की से कारोबारी रिश्ते सीमित किए, तो सबसे बड़ा नुकसान तुर्की को ही होगा।" वजह यह है कि तुर्की के पास न तो तेल है और न ही कोई बड़ा प्राकृतिक संसाधन। उसकी अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से पर्यटन और निर्माण क्षेत्र पर निर्भर करती है। लेकिन तुर्की फिलहाल धार्मिक पहचान और इस्लामिक नेतृत्व की भूख के चलते व्यावसायिक समझदारी को पीछे छोड़ता दिख रहा है।

क्या आने वाले समय में बदलेगा तुर्की का रुख

हालात बताते हैं कि तुर्की फिलहाल इस्लामिक उम्माह की राजनीति में उलझा हुआ है, और वह अपने हर फैसले को इसी चश्मे से देख रहा है। लेकिन भारत जैसे देश से दूरी बनाना उसे आर्थिक और कूटनीतिक रूप से महंगा पड़ सकता है। आने वाले वक्त में यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या एर्दोआन की विदेश नीति धार्मिक सोच से बाहर निकलकर व्यवहारिकता की राह पकड़ेगी या फिर पाकिस्तान के साथ खड़े रहकर एक और मोर्चा खोलेगी।

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