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ट्रंप ने सीरिया के विद्रोहीयों से मिला लिया हाथ तो भारत को भला तालिबान से क्या दिक्कत? जानिए कैसे कूटनीति का घूम गया पहिया

अमेरिका ने 46 साल बाद सीरिया से प्रतिबंध हटाए, भारत ने तालिबान से वार्ता की—कूटनीति में अब सिर्फ राष्ट्रीय हित ही सर्वोपरि हैं।
10:45 AM May 16, 2025 IST | Rohit Agrawal
अमेरिका ने 46 साल बाद सीरिया से प्रतिबंध हटाए, भारत ने तालिबान से वार्ता की—कूटनीति में अब सिर्फ राष्ट्रीय हित ही सर्वोपरि हैं।

अंतरराष्ट्रीय राजनीति में एक नया अध्याय लिखा जा रहा है जहां कल तक के दुश्मन आज सहयोगी बनते नजर आ रहे हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने सीरिया पर लगे 46 साल पुराने प्रतिबंध हटाकर दुनिया को चौंका दिया है, वहीं भारत ने तालिबान के कार्यवाहक विदेश मंत्री अमीर खान मुत्तकी के साथ पहली मंत्रिस्तरीय वार्ता करके इतिहास रच दिया। ये दोनों घटनाएं साबित करती हैं कि आज की कूटनीति में सिद्धांत नहीं बल्कि राष्ट्रीय हित सर्वोपरि हैं। चाहे उसके लिए पुराने दुश्मनों से ही हाथ क्यों न मिलाना पड़े।

ट्रंप के लिए कल तक थे 'आतंकी' आज बन गए 'मेहमान'

सीरिया का अहमद अल-शरा जिसे अमेरिका ने कभी आतंकी करार दिया था और उसके सिर पर 1 करोड़ डॉलर का इनाम रखा था, आज ट्रंप की मेहमाननवाजी का हकदार बन गया है। ट्रंप ने सीरिया पर लगे प्रतिबंध हटाकर और अल-शरा से मुलाकात करके स्पष्ट कर दिया कि अमेरिका का असली निशाना अब ईरान है।

यह फैसला सीरिया के लिए एक बड़ी आर्थिक राहत लेकर आया है। जहां सीरियाई मुद्रा में 60% की उछाल देखने को मिली। अमेरिका की यह चाल स्पष्ट है कि मध्य पूर्व में ईरान के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए सीरिया को नए सिरे से अपने पाले में खींचना।

पाकिस्तान को चेकमेट करने को भारत की चाल

भारत ने भी ठीक इसी रणनीति पर चलते हुए तालिबान से संवाद बढ़ाया है। विदेश मंत्री एस. जयशंकर और मुत्तकी के बीच हुई ऐतिहासिक वार्ता में दो बड़े संदेश छिपे हैं। पहला, तालिबान ने पाकिस्तानी मीडिया के उन दावों को खारिज कर दिया जिसमें कहा गया था कि भारतीय मिसाइलें अफगानिस्तान में गिरी हैं। दूसरा, चाबहार बंदरगाह के माध्यम से भारत ने पाकिस्तान को बायपास कर अफगानिस्तान तक पहुंच का नया रास्ता तैयार किया है। यह कदम न केवल आर्थिक सहयोग को बढ़ावा देगा बल्कि पाकिस्तान के प्रभाव को कम करने में भी मदद करेगा।

अमेरिका और भारत की समान रणनीति

अमेरिका और भारत की इन कार्रवाइयों में एक समान धागा दिखता है कि दोनों ने अपने रणनीतिक हितों को प्राथमिकता देते हुए पुराने विरोधियों से हाथ मिलाया है। अमेरिका ने ईरान को घेरने के लिए सीरिया को चुना तो भारत ने पाकिस्तान के प्रभाव को कम करने के लिए तालिबान से रिश्ते बनाए। यह नई वैश्विक राजनीति का संकेत है जहां "स्थायी मित्र या शत्रु नहीं, स्थायी हित होते हैं" वाला सिद्धांत काम कर रहा है। दोनों देशों ने अपनी-अपनी जरूरतों के हिसाब से अपनी विदेश नीति में लचीलापन दिखाया है।

क्या तालिबान भारत का नया सहयोगी बनेगा?

जिस तरह अमेरिका ने सीरिया को अपनी मध्य पूर्व रणनीति का हिस्सा बनाया है, भारत भी तालिबान के साथ संबंधों को नई दिशा दे सकता है। चाबहार बंदरगाह इसकी पहली सीढ़ी है जो पाकिस्तान को बायपास कर अफगानिस्तान तक सीधी पहुंच देगा। तालिबान द्वारा पाकिस्तानी झूठ का खंडन भारत के लिए एक बड़ी कूटनीतिक जीत है। हालांकि, भारत के सामने चुनौती यह है कि वह तालिबान से संबंध बनाते हुए भी अपने मूल सिद्धांतों से समझौता न करे। अफगानिस्तान में स्थिरता भारत के हित में है लेकिन इसके लिए तालिबान के मानवाधिकार रिकॉर्ड को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

कूटनीति में क्या हुआ बड़ा हेर–फेर?

अंतरराष्ट्रीय संबंधों का नया नियम स्पष्ट हो चुका है - राष्ट्रीय हित सर्वोपरि हैं और उन्हें साधने के लिए किसी भी साथी या विरोधी के साथ हाथ मिलाया जा सकता है। अमेरिका और भारत दोनों ने इसी सिद्धांत पर चलते हुए अपने-अपने रणनीतिक लक्ष्यों को पूरा किया है। जहां ट्रंप ने ईरान को घेरने के लिए सीरिया को चुना, वहीं भारत ने पाकिस्तान के प्रभाव को कम करने के लिए तालिबान से रिश्ते बनाए। यह नई वैश्विक राजनीति का संकेत है जहां पुरानी दुश्मनियां नए सहयोग में बदल सकती हैं, बशर्ते वह राष्ट्रीय हितों की पूर्ति करती हों।

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