कांवड़ यात्रा: भक्ति की परंपरा में सांस्कृतिक घुसपैठ की चुनौती
लेखक
प्रेम शुक्ला (राष्ट्रीय प्रवक्ता, भाजपा)
Kanwar Yatra: भारत एक ऐसा देश है जहां आस्था, संस्कृति और सनातन परम्पराएं जीवन की धड़कन हैं। कांवड़ यात्रा, सावन मास में भगवान शिव के प्रति समर्पण की एक महान परंपरा, केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं बल्कि सनातन भारतीय चेतना की जीवंत अभिव्यक्ति है। किंतु विगत कुछ वर्षों में इस पवित्र यात्रा को जिस प्रकार से निशाना बनाया गया है, उससे यह प्रश्न उठ खड़ा हुआ है कि क्या हमारी धार्मिक पहचान और सांस्कृतिक विरासत एक सुनियोजित मानसिकता के निशाने पर है?
प्रधानमंत्री मोदी की ऐतिहासिक विदेश यात्राएं और विपक्ष की तथ्यहीन आलोचना
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— Prem Shukla -प्रेम शुक्ल (@PremShuklaBJP) July 13, 2025
कई घटनाएं सामने आई हैं जहां तथाकथित कांवड़ियों की पहचान के पीछे जिहादी मानसिकता वाले तत्व छिपे पाए गए हैं। हाल के वर्षों में देखने में आया है कि कुछ तथाकथित ढाबा और भोजनालय, जो हिंदू नामों या प्रतीकों का दुरुपयोग करते हुए 'शिव ढाबा', 'राम रसोई', 'वैष्णवी भोजनालय', जैसे नामों से चलते हैं, असल में वहां न तो स्वच्छता है, न ही सात्विकता और कई बार उसके पीछे न तो कोई श्रद्धा है, न नीयत। यह केवल व्यापारिक छल नहीं, एक सांस्कृतिक हमला है जहां लोगों की आस्था और विश्वास को फर्जी नामों के माध्यम से निशाना बनाया जाता है।
कांवड़ यात्रा: सनातन परंपरा की अविचल धारा
कांवड़ यात्रा का उल्लेख पुराणों से लेकर आधुनिक समाज तक में मिलता है। यह यात्रा श्रावण मास में की जाती है, जब गंगा के पवित्र जल को कांवड़ में भरकर शिवालयों में चढ़ाया जाता है। इसके पीछे धार्मिक मान्यता है कि भगवान शिव ने समुद्र मंथन के दौरान निकले हलाहल विष को अपने कंठ में धारण किया था, जिससे उनका ताप बढ़ा, तब गंगाजल से उनका अभिषेक कर उन्हें शांत किया गया था। इस यात्रा में आस्था का जोश, अनुशासन, समर्पण और आध्यात्मिक एकता देखने को मिलती है, यह भारत की सामाजिक-सांस्कृतिक एकता का प्रतिबिंब है।
कांवड़ यात्रा केवल धार्मिक क्रिया नहीं, बल्कि सनातन परंपरा की वह अविचल धारा है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी प्रवाहित होती आई है। यह यात्रा हमें धर्म, तप, संयम, सहनशीलता और सामूहिक आस्था का संदेश देती है। लेकिन अब यह यात्रा सिर्फ भक्ति की यात्रा नहीं, बल्कि सांस्कृतिक अस्तित्व की परीक्षा बन गई है। कांवड़ यात्रा का सबसे सुंदर पक्ष इसकी सामूहिकता है। अलग-अलग प्रदेशों, भाषाओं और पृष्ठभूमियों से आए लोग एक ही भावना से जुड़ते हैं। रास्ते में स्वयंसेवी संस्थाएं सेवा कार्य करती हैं, भोजन, विश्राम और चिकित्सा की व्यवस्था करती हैं। यह यात्रा समाज में सेवा, सहयोग और समर्पण की भावना को भी प्रबल करती है।
योजनाबद्ध घुसपैठ और पहचान का संकट
हाल ही में उत्तर भारत, उत्तराखंड, बिहार और दिल्ली से अनेक ऐसे मामले सामने आए हैं, जहां कांवड़ यात्रा में जिहादी तत्वों द्वारा पहचान छिपाकर शामिल होने के प्रमाण मिले हैं। यह लोग भगवा वस्त्र पहनकर, माथे पर चंदन लगाकर शिवभक्तों के बीच घुलमिल जाते हैं और फिर या तो महिलाओं के साथ छेड़खानी करते हैं, या हिंसा फैलाने की योजना बनाते हैं। कुछ जिहादी संगठनों द्वारा सोशल मीडिया पर कांवड़ यात्रा के विरुद्ध नफरत फैलाने वाले पोस्ट, वीडियो और फर्जी खबरें चलाई गईं। कई शहरों में तो कांवड़ यात्रा मार्गों पर पत्थरबाजी तक हुई है, जिसमें जिहादी तत्वों की संलिप्तता पाई गई।
Just a Transparent India: The World Is Applauding Modi's Leadership, But the Opposition Can't Digest It | Opinion
Global reports and international surveys are now praising India's vibrant democracy, rapid development, and growing social equality under Prime Minister… pic.twitter.com/Z6PbWwj42X
— Prem Shukla -प्रेम शुक्ल (@PremShuklaBJP) July 22, 2025
कुछ दिन पहले ही दिल्ली के शहादरा फ्लाईओवर पर कांवड़ यात्रियों के लिए आरक्षित एक लेन पर भारी मात्रा में कांच के टुकड़े पाए गए थे। कांवड़ यात्रा पर मंडराता संकट केवल बाहरी नहीं है। देश के भीतर मौजूद तथाकथित ‘सेकुलर’ और वामपंथी राजनीति भी इस यात्रा को संदिग्ध और विवादास्पद बनाने में लगी रहती है। ऐसे राजनीतिक दल कभी भी कांवड़ियों पर हुए हमलों की निंदा नहीं करते, बल्कि यदि पुलिस सुरक्षा बढ़ा दी जाए, तो उसे 'बहुसंख्यक तुष्टीकरण' कहकर आलोचना करते हैं। यदि हलाल भोजन का अधिकार वर्ग विशेष के लोगों को है तो क्या सनातनियों को शुद्ध और सात्विक भोजन का अधिकार नहीं है? यदि कोई हिंदू जानबूझकर अपनी पहचान छिपाकर रमजान के दिनों में मुस्लिम समुदाय के लोगों के लिए वर्जित खाना परोसे तो क्या इससे सांप्रदायिक सद्भाव बढ़ेगा? नहीं, इससे सांप्रदायिक तनाव ही बढ़ेगा। आज कांवड़ यात्रा के दौरान कुछ जिहादी मानसिकता वाले लोग अपनी पहचना छिपाकर सनातनियों का धर्मभ्रष्ट कर सांप्रदायिक तनाव को ही बढ़ाना चाहते हैं।
सपा मुखिया अखिलेश यादव पर साधा निशाना
समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव आज सरकार के प्रयासों और व्यवस्थाओं पर तंज कस कर सांप्रदायिक तनाव बढ़ाने की इसी मंशा को हवा दे रहे हैं। अखिलेश यादव के बयानों से यह स्पष्ट है कि उन्हें न तो आस्था की समझ है और न ही व्यवस्थाओं के प्रति कोई अनुभव। सपा के एक अन्य वरिष्ठ नेता और सांसद एस. टी. हसन ने कांवड़ियों की तुलना आतंकवादियों से कर भारत की सनातन सहिष्णु संस्कृति पर सीधा प्रहार किया है। वहीं कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने एक बार फिर अपनी पुरानी परंपरा पर चलते हुए हिंदू आस्था और परंपरा पर सवाल उठाया है। उनका मानना है कि ‘कांवड़ यात्रा से नफरत फैलती है’। दिग्विजय सिंह का यह कथन कोरी
राजनीतिक ध्रुवीकरण की रणनीति है।
जब-जब कांग्रेस असहाय होती है, वह हिंदू प्रतीकों पर हमले करके मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति को हवा देने लगती है। इस बयान के पीछे की सोच एक व्यापक विमर्श का हिस्सा है, जहां हर हिंदू प्रतीक, हर धार्मिक आयोजन को संदेह की दृष्टि से देखा जाता है। यही सोच कभी जय श्रीराम के नारे को उकसावे का नारा कहती है, कभी भगवा झंडे को नफरत का प्रतीक बताती है, और अब कांवड़ियों को आतंकवादियों की तरह पेश करती है। स्वतंत्रता संग्राम से लेकर राष्ट्र निर्माण तक, भारतीय धर्म और संस्कृति ने लोगों को संगठित किया। भगवा झंडा और 'बोल बम' जैसे उद्घोष देश को जोड़ते हैं, तोड़ते नहीं।
इन प्रतीकों को आतंकवाद से जोड़ना उन करोड़ों नागरिकों का अपमान है जो शांतिपूर्वक अपने धर्म का पालन करते हैं। अगर कांवड़ यात्रा आतंक है, तो फिर भारत की आत्मा क्या है? फिर तो हर धार्मिक आयोजन को शक की नजरों से देखिए। यह दिशा देश को कहीं और नहीं, केवल ध्रुवीकरण, असहिष्णुता और विघटन की ओर ले जाती है। भारत की धार्मिक सहिष्णुता को कमजोरी समझने वालों को यह समझना होगा कि सनातन संस्कृति भले सहनशील हो, लेकिन अब सजग भी है। कांवड़ यात्रा जैसी पवित्र परंपरा में भक्तों को ‘फर्जी नाम’ की आड़ में जो धोखा दिया जा रहा है, वह सिर्फ व्यापारिक बेईमानी नहीं, एक सांस्कृतिक अपराध है। कांवड़ यात्रा हमारी सनातन परंपरा की एक चमकती झलक है।
इसे राजनीतिक, सांप्रदायिक या उन्मादी उद्देश्यों के लिए उपयोग करने की प्रवृत्तियों को रोकना हम सभी का कर्तव्य है। पवित्रता की रक्षा केवल बाह्य निगरानी से नहीं, बल्कि भीतरी जागरूकता, सद्भाव और सत्य के साथ की जा सकती है। धार्मिक यात्राएं विभाजन नहीं, समन्वय का माध्यम बनें, यही भारतीय संस्कृति की आत्मा है।
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